रविवार, 11 जनवरी 2009

अस्मिता पर सवाल

संजित चौधरी

महाराष्ट्र की घटनाएं देश की अखंडता और भारतीय अस्मिता के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न् उठाती हैं। क्या ऐसी वारदातें क्षेत्रवाद की आड़ में भारत संघ की नींव को कमजोर नहीं कर रही हैं। यदि हम अपने को बिहारी, मराठी, असमिया, गुजराती आदि तक ही सीमित रखेंगे तो भारतीयता का क्या होगा? क्या बिहारी, मराठी या गुजराती समुदाय भारतीय लोगों से भिन्न हैं। देश का राजनीतिक तबका अपने-अपने प्रांत विशेष के लोगों को तुष्ट कर वोट बैंक की राजनीति करने में जुट गए हैं। लेकिन भारतीय अस्मिता का फिक्र किसी को नहीं दिखता।

भारतीय राजनीति आज एक ऐसे मोड़ पर आ गई है जहां से वह अपने सुनहरे अतीत का केवल अवलोकन कर सकती है। वह अतीत जिसमें नेताओं ने राष्ट्र निर्माण के लिए एकता, अखंडता, भाईचारा आदि पर अमल करने का पुरजोर समर्थन किया था। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में नेता राजनीति की आड़ में अपने क्ष्रु स्वार्थो को पुष्ट करते नजर आ रहे हैं। आज हमारे नेता क्षेत्र के विकास के नाम पर क्षुद्र क्षेत्रवाद फैलाने और लोगों को गुमराह करने से थोड़ा भी परहेज नहीं करते। हाल ही में महाराष्ट्र में हुई घटनाएं इसका प्रमाण हैं। मराठी और बिहारी के मुद्दे को ढाल बनाकर नेता अपने स्वार्थो की पूर्ति करने में लगे हैं। उनके बयान और व्यवहार से ऐसा लगता है कि अब भारतीयता कोई मुद्दा ही नहीं रहा। क्या यह वास्तविकता नहीं है कि बिहारी-मराठी की लड़ाई में जीत चाहे किसी की भी हो, लेकिन हार तो केवल भारतीयता की हो रही है। क्या आज लोगों को भारतीय होने में गर्व महसूस नहीं होता। या वे प्रांतीयता के मोह से इतने बंध गए हैं कि उन्हें राष्ट्रीयता की बलि देने से भी गुरेज नहीं है।

बहरहाल, मुद्दा यह नहीं है कि राज ठाकरे मराठियों के हित की बात कर रहे हैं या लालू-नीतीश बिहारियों के। बल्कि अहम सवाल यह है कि किसी भी नेता को भारतीयता या भारतीय अस्मिता को बचाने की चिंता नहीं दिख रही है। उन्हें तो सबसे अधिक चिंता अपने वोटबैंक को बचाने की है। यही कारण है कि वे एक-दूसरे के खिलाफ विष वमन कर रहे हैं जिसका विध्वंसक परिणाम हमारे सामने है। कुंठित और धूर्त नेताओं के इस व्यवहार के कारण ही लोगों को अपने ही देश के किसी प्रांत विशेष में पराया व्यवहार और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। विद्वेष की इस आग को भड़काकर तमाम नेता अपनी रोटियां सेंकने लगे हैं। आज अगर ऐसे स्वार्थी नेताओं की गिनती की जाए तो एक बड़ा समूह ऐसी ही घटिया राजनीति में लिप्त दिखाई देता है। राज ठाकरे तो इसकी बानगी भर है जो मराठी मानुष की बात करते हुए उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र से जबरन निकाल बाहर करने को बेताब हैं।

राज ठाकरे ने शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे से अलग होकर जब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया था तब लोगों को उनसे उम्मीद थी कि वह एक साफ-सुथरी राजनीति की नींव डालेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राज ठाकरे ने भी राजनीति में कामयाबी पाने के लिए शॉर्ट कट रास्ते पर निकल पड़े। कई वर्ष पहले राजनीति का जो गंदा चेहरा बाल ठाकरे ने दिखाया था उसी को राज ठाकरे आज संवार रहे हैं। 2003 में बाल ठाकरे ने रेलवे परीक्षा में धांधली का आरोप लगाते हुए कहा था कि 500 मराठी उम्मीदवारों में केवल दस ही पास हो सके। 90 प्रतिशत बिहारी उम्मीदवार ही क्यों रेलवे की परीक्षा में सफल होते हैं। उन्होंने बिहारियों पर घटिया व्यंग्य भी किया, ताकि मराठी जनता खुश हो सके। इसी के बाद धरना-प्रदर्शन का दौर शुरू हो गया था। राज ठाकरे को अपनी राजनीतिक कामयाबी के लिए भी यही मुद्दा सबसे दमदार लगा। इसलिए वह भी मराठियों और गैर मराठियों के बीच खाई को पाटने के बजाए और बढ़ाने लगे हैं। यह कोई पहली घटना नहीं है जब बिहारी या उत्तर प्रदेश या गैर मराठी लोगों पर जुल्म ढाए गए। कुछ महीने पहले ही मुंबई सहित महाराष्ट्र के दूसरे शहरों में गैर मराठियों के खिलाफ हिंसक अभियान चलाया गया था।

राजनीतिक दलों ने उत्तर भारतीयों पर मनसे कार्यकर्ताओं द्वारा हुए हमलों की निंदा तो की, लेकिन इससे कुछ हुआ नहीं। कांग्रेस नेता संजय निरुपम ने कहा कि मनसे कार्यकर्ताओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी, लेकिन नतीजा सिफर रहा। वहीं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने कहा कि उनकी सरकार ऐसी घटनाओं को बर्दाश्त नहीं करेगी। लेकिन हालात बताते हैं कि कोई (सरकार) कुछ करना ही नहीं चाहता। उधर, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव अपने ही राग अलाप रहे हैं। रेलमंत्री ने कहा कि राज ठाकरे पगला गया है और अब उसका इलाज जरूरी है। वह जिस तरह की भाषा बोलते हैं, और उनके समर्थक जो हरकतें करते हैं, वे स्पष्ट रूप से राष्ट्रविरोधी हैं।

बहरहाल, नेताओं की बयानबाजी के बावजूद बिहारी अब भी असुरक्षित थे। इधर नेता तीखी बयानबाजी में में उलङो रहे और उधर दीवाली पर दस मनसे कार्यकर्ताओं ने धर्मदेव रामनारायण राय को मार डाला। अब तक एेसे ही कई ‘धर्मदेवोंज् की बलि ठाकरे ने ले ली है। उनकी दलील है कि बिहारी नेता केवल हमें ही क्यों दोषी ठहराते हैं, बिहारियों पर तो असम सहित दूसरे प्रदेशों में भी हमले हुए हैं। क्या उनकी यह दलील हमारे गले उतर सकती है।

महाराष्ट्र की घटनाएं देश की अखंडता और भारतीय अस्मिता के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न् उठाती हैं। क्या ऐसी वारदातें क्षेत्रवाद की आड़ में भारत की संघीय व्यवस्था की नींव को कमजोर नहीं कर रही हैं। यदि हम अपने को बिहारी, मराठी, असमिया, गुजराती आदि तक ही सीमित रखेंगे तो भारतीयों का क्या होगा। क्या बिहारी, मराठी या गुजराती लोग भारतीय लोगों से भिन्न हैं। क्या भारतीय अस्मिता के निर्माण में किसी प्रांत विशेष के योगदान को नकारा जा सकता है। बिल्कुल नहीं। यह सही है कि भारत के विभिन्न प्रांतों या राज्यों की अपनी-अपनी विशेषताएं और समस्याएं हैं। लेकिन वे समस्याएं या विशेषताएं भारत से अलग कैसे हो सकती हैं।

भारत के लिए क्षेत्रवाद की समस्या कोई नई नहीं है। आजादी के समय से ही देश को इससे जूझना पड़ा है। आजादी के समय भी धर्म के आधार पर देश को दो भागों में बांटना पड़ा था। उसके बाद देश के अंदर विभिन्न राजे-रजवाड़ों को मिलाकर भारत संघ की स्थापना करना कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। यही कारण था कि 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया। इसके साथ ही देश में भाषाई क्षेत्रवाद को वैधता मिल गई। दरअसल, देश में अब तक राज्यों का गठन प्रशासनिक आधार पर न होकर भाषा या समुदाय विशेष की बहुलता के आधार पर किया गया है। आंध्र प्रदेश, झारखंड, उत्तराखंड, हरियाणा आदि राज्य इसके उदाहरण हैं। 70 के दशक में महाराष्ट्र में शिवसेना ने लोगों की क्षेत्रीय अस्मिता को भड़काने का प्रयास किया था। उस समय उसने महाराष्ट्र मराठियों का नारा दिया था। तमिलनाडु में भी तेलुगुभाषियों के लिए अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन हुआ। बाद में यह हिंद विरोधी और अलगावाद का रूप ले लिया। 80 के दशक में भाषाई और मजहबी क्षेत्रीयता ने पंजाब में आतंकवाद को जन्म दिया। असम सहित उत्तर-पूर्वी राज्यों में क्षेत्रीय आंदोलन हिंसक अलगाववाद का रूप ले चुका है। हाल ही में महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर हमला कर मनसे कार्यकर्ताओं ने जब भारत के संघीय ढांचा को कमजोर करने का प्रयास किया है, तो क्षेत्रवाद एक बार फिर बहस का मुद्दा बन गया है। लेकिन इस बार बहस का मुद्दा क्षेत्रवाद की बजाए राष्ट्रवाद क्यों न हो। क्या राष्ट्रीय अस्मिता की कीमत पर क्षेत्रीयता को फलते-फूलते देखना हम बर्दाश्त कर सकेंगे।

भाषाई और सांस्कृतिक बहुलता के इस देश में किसी क्षेत्र विशेष के लोगों में किसी बात को लेकर केंद्रीय सत्ता से असंतुष्टि स्वाभाविक है। दरअसल, स्थानीय लोगों की अपेक्षाओं के पूरा न होने पर लोगों में असंतोष पनपा। इसी ने क्षेत्रीय राजनीति को जन्म दिया। लेकिन आगे चलकर यह नेताओं के क्षुद्र स्वार्थ को पूरा करने और सत्ता प्राप्ति का दमदार अस्त्र बन गया। यही कारण है कि लोगों की समस्याएं दशकों बाद भी जस की तस बनी हुई हैं। उधर, क्षेत्रीय राजनीति के अगुआ नेताओं को सत्ता, धन और ख्याति सब एक साथ मिल गए।

विडंबना है कि जिन मुद्दों को लेकर क्षेत्रीय पार्टियों का उद्भव हुआ था, आगे चलकर वह उससे मुंह मोड़ती गईं। सत्ता हथियाने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों को आज अपने विरोधी पार्टियों के साथ गठबंधन करने से थोड़ा भी गुरेज नहीं है। बावजूद इसके वह आम लोगों की भावनाओं को भड़काकर स्वयं को सच्चा क्षेत्रवादी घोषित करने में लगी हैं। आम लोगों को उनकी यह चाल समझना होगा। साथ ही यह बताना होगा कि बहुत हो चुका अब उन्हें और मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है।


ऐसे भड़की नफरत की आग

मुंबई में 3 फरवरी, 2008 को राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) और समाजवादी पार्टी (सपा) के बीच एक रैली को लेकर झड़प हुई थी। इसके बाद महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के खिलाफ हिंसक अभियान चलाया गया। मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने यह दलील देकर इसे जायज ठहराया था कि उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी और उनके नेता बेवजह अपने बाहुबल को प्रदर्शित करने के लिए रैली का आयोजन कर रहे थे। इसे उन्होंने अनियंत्रित राजनीतिक और सांस्कृतिक दादागिरी करार दिया था।

लोगों के दबाव के बाद राज्य सरकार ने सांप्रदायिक तनाव के आरोप में राज ठाकरे और एक स्थानीय समाजवादी नेता अबू आसिम आजमी को गिरफ्तार कर लिया। हालांकि उन्हें उसी दिन जमानत पर रिहा कर दिया गया लेकिन उनके समर्थकों में इस बात को लेकर खलबली मच गई। राज ठाकरे की गिरफ्तारी के बाद कल्याण के पास एक गांव में हुए झड़प में चार लोग मारे गए और एक गंभीर रूप से घायल हो गए। इसके बाद मुंबई सहित महाराष्ट्र के दूसरे हिस्सों में भी उत्तर भारतीयों और उनकी संपत्तियों को निशाना बनाया जाने लगा। इसके परिणामस्वरूप हजारों उत्तर भारतीय कामगार पलायन करने को मजबूर हो गए।

उधर, बिहार में भी इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। जगह-जगह आगजनी हुई और रेल पटरियों को उखाड़ दिया गया। इससे रेल सेवाएं बुरी तरह बाधित रहीं और कई ट्रेनों को रद्द कर दिया गया। एक आकलन के अनुसार इन घटनाओं के कारण स्थानीय उद्योगों को लगभग 500 से 700 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।




बयानबाजी

दलअसल, राज पगला गया है और अब उसका इलाज जरूरी है। मनसे लूटेरों का झुंड है और सियासत से इसे कोई लेना-देना नहीं है। इस पर जल्द पाबंदी लगा देनी चाहिए।
-लालू प्रसाद यादव,
केंद्रीय रेल मंत्री
लालू असभ्य हैं। वे अपने गिरेबान में खुद झांकें। अगर उन्होंने राज्य का विकास किया होता तो बिहार के लोगों को काम के लिए महाराष्ट्र आने की कोई जरूरत नहीं पड़ती।
-शिरीष पारकर,
प्रवक्ता, मनसे
मुङो उम्मीद है कि महाराष्ट्र सरकार मनसे कार्यकर्ताओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई करेगी और उत्तर भारतीयों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी।
-नीतिश कुमार,
मुख्यमंत्री, बिहार
मैं मानता हूं कि सरकार उत्तर भारतीयों पर हमले रोकने में नाकाम रही है लेकिन लोगों को आश्वस्त रहना चाहिए कि यहां राज ठाकरे की गुंडागर्दी हरगिज नहीं चल पाएगी।
-विलास राव देशमुख,
मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र
सचिन तेंदूलकर, सुनील गावस्कर, लता मंगेशकर या अन्ना हजारे बिहारियों पर हुए हमले की निंदा करने के लिए बाहर क्यों नहीं आते हैं। समाज में इनकी छवि अच्छी है और इनके शब्द लोगों को खासा प्रभावित कर सकते हैं।
-शत्रुघ्न सिंन्हा,
बॉलीवुड अभिनेता और भाजपा सांसद

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