रविवार, 11 जनवरी 2009

बेरोजगारी बढ़ा गया साल

संजित चौधरी

आर्थिक दृष्टि से साल 2008 काफी उथल-पुथल भरा रहा। वैश्विक अर्थव्यवस्था में छाई मंदी की काली साया से आम भारतीय भी नहीं बच सके। उद्योग जगत की ओर से लागत कम करने के लिए उठाए गए कदमों ने नौकरी-पेशा वालों के लिए समस्या को और भयावह बना दिया। पहले से ही महंगाई की आग में झुलस रहे लोगों के लिए छंटनी आग में घी का काम किया। छंटनी के शिकार लोगों की स्थिति लगातार बद से बदतर हो गई। साल के अंत तक हजारों लोगों को छंटनी का शिकार होना पड़ा।
साल के शुरुआती महीनों में अमेरिकी मंदी से संबंधित खबरें भारतीय समाचार मीडिया में लगभग नहीं थीं। कुछ महीने बाद वैश्विक मंदी और इसकी चपेट में अमेरिकी अर्थव्यवस्था के आने की खबर आने लगी। लेकिन जब अमेरिका का दूसरा सबसे बड़ा बैंक एआईजी के दिवालिया होने की खबरें आईं तो भारतीयों के भी कान खड़े हो गए। खबरें आईं कि अमेरिका में एआईजी के दिवालिया होने से 5 लाख 16 हजार लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। हालांकि इस समय तक भारतीयों को लग रहा था कि वह सुरक्षित हैं। यह उन से हजारों किलोमीटर दूर विकसित अर्थव्यवस्था की समस्या है। लेकिन जब भारत में भी विभिन्नों कंपनियों से कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा तो नौकरी-पेशा करने वालों के लिए एक नई मुशीबत खड़ी हो गई।
लागत में कटौती का बहाना कर जेट एयरवेज ने 1,900 कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाना चाहा, लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण कंपनी को अपना फैसला वापस लेना पड़ा। एयर इंडिया जसी कई कंपनियों ने अपने कर्मचारियों से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने की पेशकश कीं। वहीं कुछ कंपनियों ने कर्मचारियों के वेतन में कटौती कर दीं। इसके अलावा सत्यम, इन्फोसिस जसे बड़ी आईटी कंपनियों ने भी रूटीन प्रक्रिया के बहाने कई हजार पेशेवरों को बाहर निकाल दिया। इसी तरह कई बड़ी दवा कंपनियों ने विपणन कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। देश में कपड़ा और आभूषण उद्योग में काम करने वाले लोगों के लिए साल 2008 मुश्किलों भरा रहा। रुपया कमजोर होने और निर्यात घटने के कारण इन सेक्टरों में काम करने वाले लोगों की नौकरियों पर भी खतरा मंडराने लगा। एक आकलन के अनुसार अकेले आभूषण उद्योग में लगभग 50,000 लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
साल के दौरान कपड़ा उद्योग की हालत भी पतली रही। रुई के दाम बढ़ने और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों से मांग घटने के कारण कई वस्त्र उत्पादक इकाइयां बंद हो गईं। इससे लगभग 7 लाख लोगों की नौकरी चली गई। भारतीय कपड़ा उद्योग संघ के अनुसार इस सेक्टर में बेरोजगारों की संख्या बढ़कर 12 लाख तक पहुंच सकती है। इसी प्रकार कालीन बनाने वाले कारीगर को भी रोजगार के लाले पड़ गए। वैश्विक मंदी के कारण विश्व बाजार से कालीन की मांग में कमी आई। अधिक लागत और निर्यात कम होने के कारण उत्पादन ईकाइयां बंद होने लगीं। इससे कारीगर बेरोजगार होते गए। इसी तरह प्लास्टिक, सीमेंट, इस्पात, रसायन, चमड़ा आदि सेक्टरों में भी साल के दौरान हजारों कामगारों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। खासकर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले निम्न और निम्न मध्यम आय समूह के लोगों के लिए इस स्थिति से सामना करना कहीं अधिक कठिन हो गया।

अस्मिता पर सवाल

संजित चौधरी

महाराष्ट्र की घटनाएं देश की अखंडता और भारतीय अस्मिता के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न् उठाती हैं। क्या ऐसी वारदातें क्षेत्रवाद की आड़ में भारत संघ की नींव को कमजोर नहीं कर रही हैं। यदि हम अपने को बिहारी, मराठी, असमिया, गुजराती आदि तक ही सीमित रखेंगे तो भारतीयता का क्या होगा? क्या बिहारी, मराठी या गुजराती समुदाय भारतीय लोगों से भिन्न हैं। देश का राजनीतिक तबका अपने-अपने प्रांत विशेष के लोगों को तुष्ट कर वोट बैंक की राजनीति करने में जुट गए हैं। लेकिन भारतीय अस्मिता का फिक्र किसी को नहीं दिखता।

भारतीय राजनीति आज एक ऐसे मोड़ पर आ गई है जहां से वह अपने सुनहरे अतीत का केवल अवलोकन कर सकती है। वह अतीत जिसमें नेताओं ने राष्ट्र निर्माण के लिए एकता, अखंडता, भाईचारा आदि पर अमल करने का पुरजोर समर्थन किया था। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में नेता राजनीति की आड़ में अपने क्ष्रु स्वार्थो को पुष्ट करते नजर आ रहे हैं। आज हमारे नेता क्षेत्र के विकास के नाम पर क्षुद्र क्षेत्रवाद फैलाने और लोगों को गुमराह करने से थोड़ा भी परहेज नहीं करते। हाल ही में महाराष्ट्र में हुई घटनाएं इसका प्रमाण हैं। मराठी और बिहारी के मुद्दे को ढाल बनाकर नेता अपने स्वार्थो की पूर्ति करने में लगे हैं। उनके बयान और व्यवहार से ऐसा लगता है कि अब भारतीयता कोई मुद्दा ही नहीं रहा। क्या यह वास्तविकता नहीं है कि बिहारी-मराठी की लड़ाई में जीत चाहे किसी की भी हो, लेकिन हार तो केवल भारतीयता की हो रही है। क्या आज लोगों को भारतीय होने में गर्व महसूस नहीं होता। या वे प्रांतीयता के मोह से इतने बंध गए हैं कि उन्हें राष्ट्रीयता की बलि देने से भी गुरेज नहीं है।

बहरहाल, मुद्दा यह नहीं है कि राज ठाकरे मराठियों के हित की बात कर रहे हैं या लालू-नीतीश बिहारियों के। बल्कि अहम सवाल यह है कि किसी भी नेता को भारतीयता या भारतीय अस्मिता को बचाने की चिंता नहीं दिख रही है। उन्हें तो सबसे अधिक चिंता अपने वोटबैंक को बचाने की है। यही कारण है कि वे एक-दूसरे के खिलाफ विष वमन कर रहे हैं जिसका विध्वंसक परिणाम हमारे सामने है। कुंठित और धूर्त नेताओं के इस व्यवहार के कारण ही लोगों को अपने ही देश के किसी प्रांत विशेष में पराया व्यवहार और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। विद्वेष की इस आग को भड़काकर तमाम नेता अपनी रोटियां सेंकने लगे हैं। आज अगर ऐसे स्वार्थी नेताओं की गिनती की जाए तो एक बड़ा समूह ऐसी ही घटिया राजनीति में लिप्त दिखाई देता है। राज ठाकरे तो इसकी बानगी भर है जो मराठी मानुष की बात करते हुए उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र से जबरन निकाल बाहर करने को बेताब हैं।

राज ठाकरे ने शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे से अलग होकर जब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया था तब लोगों को उनसे उम्मीद थी कि वह एक साफ-सुथरी राजनीति की नींव डालेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राज ठाकरे ने भी राजनीति में कामयाबी पाने के लिए शॉर्ट कट रास्ते पर निकल पड़े। कई वर्ष पहले राजनीति का जो गंदा चेहरा बाल ठाकरे ने दिखाया था उसी को राज ठाकरे आज संवार रहे हैं। 2003 में बाल ठाकरे ने रेलवे परीक्षा में धांधली का आरोप लगाते हुए कहा था कि 500 मराठी उम्मीदवारों में केवल दस ही पास हो सके। 90 प्रतिशत बिहारी उम्मीदवार ही क्यों रेलवे की परीक्षा में सफल होते हैं। उन्होंने बिहारियों पर घटिया व्यंग्य भी किया, ताकि मराठी जनता खुश हो सके। इसी के बाद धरना-प्रदर्शन का दौर शुरू हो गया था। राज ठाकरे को अपनी राजनीतिक कामयाबी के लिए भी यही मुद्दा सबसे दमदार लगा। इसलिए वह भी मराठियों और गैर मराठियों के बीच खाई को पाटने के बजाए और बढ़ाने लगे हैं। यह कोई पहली घटना नहीं है जब बिहारी या उत्तर प्रदेश या गैर मराठी लोगों पर जुल्म ढाए गए। कुछ महीने पहले ही मुंबई सहित महाराष्ट्र के दूसरे शहरों में गैर मराठियों के खिलाफ हिंसक अभियान चलाया गया था।

राजनीतिक दलों ने उत्तर भारतीयों पर मनसे कार्यकर्ताओं द्वारा हुए हमलों की निंदा तो की, लेकिन इससे कुछ हुआ नहीं। कांग्रेस नेता संजय निरुपम ने कहा कि मनसे कार्यकर्ताओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी, लेकिन नतीजा सिफर रहा। वहीं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने कहा कि उनकी सरकार ऐसी घटनाओं को बर्दाश्त नहीं करेगी। लेकिन हालात बताते हैं कि कोई (सरकार) कुछ करना ही नहीं चाहता। उधर, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव अपने ही राग अलाप रहे हैं। रेलमंत्री ने कहा कि राज ठाकरे पगला गया है और अब उसका इलाज जरूरी है। वह जिस तरह की भाषा बोलते हैं, और उनके समर्थक जो हरकतें करते हैं, वे स्पष्ट रूप से राष्ट्रविरोधी हैं।

बहरहाल, नेताओं की बयानबाजी के बावजूद बिहारी अब भी असुरक्षित थे। इधर नेता तीखी बयानबाजी में में उलङो रहे और उधर दीवाली पर दस मनसे कार्यकर्ताओं ने धर्मदेव रामनारायण राय को मार डाला। अब तक एेसे ही कई ‘धर्मदेवोंज् की बलि ठाकरे ने ले ली है। उनकी दलील है कि बिहारी नेता केवल हमें ही क्यों दोषी ठहराते हैं, बिहारियों पर तो असम सहित दूसरे प्रदेशों में भी हमले हुए हैं। क्या उनकी यह दलील हमारे गले उतर सकती है।

महाराष्ट्र की घटनाएं देश की अखंडता और भारतीय अस्मिता के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न् उठाती हैं। क्या ऐसी वारदातें क्षेत्रवाद की आड़ में भारत की संघीय व्यवस्था की नींव को कमजोर नहीं कर रही हैं। यदि हम अपने को बिहारी, मराठी, असमिया, गुजराती आदि तक ही सीमित रखेंगे तो भारतीयों का क्या होगा। क्या बिहारी, मराठी या गुजराती लोग भारतीय लोगों से भिन्न हैं। क्या भारतीय अस्मिता के निर्माण में किसी प्रांत विशेष के योगदान को नकारा जा सकता है। बिल्कुल नहीं। यह सही है कि भारत के विभिन्न प्रांतों या राज्यों की अपनी-अपनी विशेषताएं और समस्याएं हैं। लेकिन वे समस्याएं या विशेषताएं भारत से अलग कैसे हो सकती हैं।

भारत के लिए क्षेत्रवाद की समस्या कोई नई नहीं है। आजादी के समय से ही देश को इससे जूझना पड़ा है। आजादी के समय भी धर्म के आधार पर देश को दो भागों में बांटना पड़ा था। उसके बाद देश के अंदर विभिन्न राजे-रजवाड़ों को मिलाकर भारत संघ की स्थापना करना कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। यही कारण था कि 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया। इसके साथ ही देश में भाषाई क्षेत्रवाद को वैधता मिल गई। दरअसल, देश में अब तक राज्यों का गठन प्रशासनिक आधार पर न होकर भाषा या समुदाय विशेष की बहुलता के आधार पर किया गया है। आंध्र प्रदेश, झारखंड, उत्तराखंड, हरियाणा आदि राज्य इसके उदाहरण हैं। 70 के दशक में महाराष्ट्र में शिवसेना ने लोगों की क्षेत्रीय अस्मिता को भड़काने का प्रयास किया था। उस समय उसने महाराष्ट्र मराठियों का नारा दिया था। तमिलनाडु में भी तेलुगुभाषियों के लिए अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन हुआ। बाद में यह हिंद विरोधी और अलगावाद का रूप ले लिया। 80 के दशक में भाषाई और मजहबी क्षेत्रीयता ने पंजाब में आतंकवाद को जन्म दिया। असम सहित उत्तर-पूर्वी राज्यों में क्षेत्रीय आंदोलन हिंसक अलगाववाद का रूप ले चुका है। हाल ही में महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर हमला कर मनसे कार्यकर्ताओं ने जब भारत के संघीय ढांचा को कमजोर करने का प्रयास किया है, तो क्षेत्रवाद एक बार फिर बहस का मुद्दा बन गया है। लेकिन इस बार बहस का मुद्दा क्षेत्रवाद की बजाए राष्ट्रवाद क्यों न हो। क्या राष्ट्रीय अस्मिता की कीमत पर क्षेत्रीयता को फलते-फूलते देखना हम बर्दाश्त कर सकेंगे।

भाषाई और सांस्कृतिक बहुलता के इस देश में किसी क्षेत्र विशेष के लोगों में किसी बात को लेकर केंद्रीय सत्ता से असंतुष्टि स्वाभाविक है। दरअसल, स्थानीय लोगों की अपेक्षाओं के पूरा न होने पर लोगों में असंतोष पनपा। इसी ने क्षेत्रीय राजनीति को जन्म दिया। लेकिन आगे चलकर यह नेताओं के क्षुद्र स्वार्थ को पूरा करने और सत्ता प्राप्ति का दमदार अस्त्र बन गया। यही कारण है कि लोगों की समस्याएं दशकों बाद भी जस की तस बनी हुई हैं। उधर, क्षेत्रीय राजनीति के अगुआ नेताओं को सत्ता, धन और ख्याति सब एक साथ मिल गए।

विडंबना है कि जिन मुद्दों को लेकर क्षेत्रीय पार्टियों का उद्भव हुआ था, आगे चलकर वह उससे मुंह मोड़ती गईं। सत्ता हथियाने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों को आज अपने विरोधी पार्टियों के साथ गठबंधन करने से थोड़ा भी गुरेज नहीं है। बावजूद इसके वह आम लोगों की भावनाओं को भड़काकर स्वयं को सच्चा क्षेत्रवादी घोषित करने में लगी हैं। आम लोगों को उनकी यह चाल समझना होगा। साथ ही यह बताना होगा कि बहुत हो चुका अब उन्हें और मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है।


ऐसे भड़की नफरत की आग

मुंबई में 3 फरवरी, 2008 को राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) और समाजवादी पार्टी (सपा) के बीच एक रैली को लेकर झड़प हुई थी। इसके बाद महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के खिलाफ हिंसक अभियान चलाया गया। मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने यह दलील देकर इसे जायज ठहराया था कि उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी और उनके नेता बेवजह अपने बाहुबल को प्रदर्शित करने के लिए रैली का आयोजन कर रहे थे। इसे उन्होंने अनियंत्रित राजनीतिक और सांस्कृतिक दादागिरी करार दिया था।

लोगों के दबाव के बाद राज्य सरकार ने सांप्रदायिक तनाव के आरोप में राज ठाकरे और एक स्थानीय समाजवादी नेता अबू आसिम आजमी को गिरफ्तार कर लिया। हालांकि उन्हें उसी दिन जमानत पर रिहा कर दिया गया लेकिन उनके समर्थकों में इस बात को लेकर खलबली मच गई। राज ठाकरे की गिरफ्तारी के बाद कल्याण के पास एक गांव में हुए झड़प में चार लोग मारे गए और एक गंभीर रूप से घायल हो गए। इसके बाद मुंबई सहित महाराष्ट्र के दूसरे हिस्सों में भी उत्तर भारतीयों और उनकी संपत्तियों को निशाना बनाया जाने लगा। इसके परिणामस्वरूप हजारों उत्तर भारतीय कामगार पलायन करने को मजबूर हो गए।

उधर, बिहार में भी इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। जगह-जगह आगजनी हुई और रेल पटरियों को उखाड़ दिया गया। इससे रेल सेवाएं बुरी तरह बाधित रहीं और कई ट्रेनों को रद्द कर दिया गया। एक आकलन के अनुसार इन घटनाओं के कारण स्थानीय उद्योगों को लगभग 500 से 700 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।




बयानबाजी

दलअसल, राज पगला गया है और अब उसका इलाज जरूरी है। मनसे लूटेरों का झुंड है और सियासत से इसे कोई लेना-देना नहीं है। इस पर जल्द पाबंदी लगा देनी चाहिए।
-लालू प्रसाद यादव,
केंद्रीय रेल मंत्री
लालू असभ्य हैं। वे अपने गिरेबान में खुद झांकें। अगर उन्होंने राज्य का विकास किया होता तो बिहार के लोगों को काम के लिए महाराष्ट्र आने की कोई जरूरत नहीं पड़ती।
-शिरीष पारकर,
प्रवक्ता, मनसे
मुङो उम्मीद है कि महाराष्ट्र सरकार मनसे कार्यकर्ताओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई करेगी और उत्तर भारतीयों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी।
-नीतिश कुमार,
मुख्यमंत्री, बिहार
मैं मानता हूं कि सरकार उत्तर भारतीयों पर हमले रोकने में नाकाम रही है लेकिन लोगों को आश्वस्त रहना चाहिए कि यहां राज ठाकरे की गुंडागर्दी हरगिज नहीं चल पाएगी।
-विलास राव देशमुख,
मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र
सचिन तेंदूलकर, सुनील गावस्कर, लता मंगेशकर या अन्ना हजारे बिहारियों पर हुए हमले की निंदा करने के लिए बाहर क्यों नहीं आते हैं। समाज में इनकी छवि अच्छी है और इनके शब्द लोगों को खासा प्रभावित कर सकते हैं।
-शत्रुघ्न सिंन्हा,
बॉलीवुड अभिनेता और भाजपा सांसद

::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::समाप्त::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

साल 2008 : महंगाई की मार व सेंसेक्स की हार

साल 2008 भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए उथल-पुथल भरा रहा। वश्विक आर्थिक मंदी के बावजूद बीते साल में भारतीय अर्थव्यवस्था को कई बुलंदियां हासिल हुईं। हालांकि इन्हें लंबे समय तक बरकरार रखा न जा सका और साल के अंत तक बुलंद अर्थव्यवस्था लड़खड़ाती नजर आई।
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संजित चौधरी

साल 2008 भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए उथल-पुथल भरा रहा। इस दौरान देश में कई ऐसी घटनाएं हुईं जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। वश्विक आर्थिक मंदी के बावजूद बीते साल में भारतीय अर्थव्यवस्था को कई बुलंदियां हासिल हुईं। हालांकि इन्हें लंबे समय तक बरकरार रखा न जा सका और साल के अंत तक बुलंद अर्थव्यवस्था लड़खड़ाती नजर आई। महंगाई की मार और सेंसेक्स की हार दोनों ने ही भारतीय अर्थव्यवस्था को मुंह चिढ़ाया।
बीते साल की शुरुआत में पेट्रोलियम पदार्थो के दाम बढ़ाए गए। सरकार के इस कदम का लोगों ने विरोध नहीं किया। दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की आसमान छूती कीमतों के कारण भारतीय तेल कंपनियों का घटा लगातार बढ़ रहा था। इसे देखते हुए लोगों ने सरकार के इस फैसले का समर्थन किया। इसी दौरान टाटा ने लखटकिया कार ‘नैनोज् को बाजार में उतारने की घोषणा की। कंपनी का दावा है कि एक लाख रुपए कीमत वाली नैनो दुनिया की सबसे सस्ती कार होगी। लेकिन राजनीतिक दलों की खींचातानी के कारण नैनो निर्धारित समय पर बाजार में आ न सकी।
साल के मध्य तक कच्चे तेल की कीमतें उफान लेने लगीं और 147 डॉलर प्रति बैरल के स्तर को छू गईं। इसी दौरान महंगाई अपने चरम रूप में सामने आने आई। इसने न केवल आम लोगों की घरेलू अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया, बल्कि उद्योग जगत भी इसकी चपेट में आने लगे। यही कारण थी कि उद्योग जगत में मुनाफा बरकरार रखने की कोशिशें तेज हुईं। इसी क्रम में ‘कॉस्ट कटिंगज् के नाम पर संसाधनों को सीमित करना आम बात हो गई। कई सेक्टर में तो हजारों कर्मचारियों को बाहर का रास्ता तक दिखा दिया गया। इससे बेरोजगारी बढ़ी और पहले से ही महंगाई की मार से त्रस्त हजारों लोगों के सामने रोजी-रोटी की समस्या आ खड़ी हुई।

महंगाई दर 13 फीसदी तक
महंगाई की मार साल भर लोगों को तबाह करती रही। इससे उद्योग जगत और सरकार भी कम परेशान नहीं दिखे। महंगाई दर को नीचे लाने के लिए सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से कई पहल किए गए। इसी क्रम में रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति को सख्त किया। साथ ही सीआरआर, रेपो और रिवर्स रेपो दरों में बदलाव किए। इससे बाजार में मौजूद तरलता को सोखने में मदद मिली।
सरकार और रिजर्व बैंक की कोशिशों से मुद्रास्फीति की दर साल के अंत तक 13 प्रतिशत से गिर कर 7 प्रतिशत से भी नीचे आ गई। हालांकि खुदरा बाजार पर इसका असर कम ही दिखा। मंदी से निपटने के लिए साल के अंतिम महीने में रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति को धीरे-धीरे लचीला करना शुरू किया, ताकि बाजार में तरलता बढ़ाया जा सके।

लुढ़क गया सेंसेक्स
शेयर बाजार के लिए बीते साल का शुरुआती दौर बेहद अच्छा था। जनवरी 2008 में सेंसेक्स 21,200 अंक के स्तर को भी पार कर चुका था। इससे प्रोत्साहित होकर आम निवेशक भी शेयर बाजार की ओर रुख करते दिखे। यही कारण है कि डीमैट खाता खुलवाने के लिए लोगों की लाइन लगातार लंबी होती गई। हालांकि जानकारों ने लोगों को हिदायत दी कि वे सोच-समझकर ही शेयर बाजार में निवेश करें।
धीरे-धीरे बाजार का उफान थमता गया और जल्द ही अमीर बनने की ख्वाब में आम निवेशक परेशान होते गए। मुनाफा वसूली के भंवर में अधिकांश निवेशकों को अपनी पूंजी भी गवांनी पड़ी। साल के अंत तक सेंसेक्स 10,000 अंक से भी नीचे लुढ़क गया। बाजार में गिरावट की रफ्तार चढ़ने की गति से कहीं अधिक तेज रही।

सबसे बड़ा आईपीओ
शेयर बाजार के निवेशकों में उस समय उत्साह की लहर दौड़ गई जब रिलायंस पावर लिमिटेड यानी आरपीएल ने आईपीओ लाने की घोषणा की। कंपनी ने बाजार से लगभग 12,000 करोड़ रुपए की राशि जुटाने के लिए 26 करोड़ इक्विटी शेयर जारी किए। प्रत्येक शेयर के लिए 405 और 450 रुपए आरंभिक मूल्य तय किए गए। इसके बावजूद आईपीओ को निवेशकों का अच्छा समर्थन मिला। 15 जनवरी 2008 को आईपीओ खुलने के चंद घंटों बाद ही निवेशकों ने इसे हाथों-हाथ ले लिया।
आरपीएल के आईपीओ को 52 गुना समर्थन मिला और कंपनी के पास 1,45,080 करोड़ रुपए जमा हो गए। विशाल जमा राशि के कारण ही यह देश का सबसे बड़ा आईपीओ बन गया। हालांकि शेयर बाजार में सूचीबद्ध होने के बाद इसके प्रति निवेशकों का उत्साह ठंडा पड़ गया और इसका शेयर मूल्य आरंभिक मूल्य से काफी नीचे चला गया।

बिक गई रैनबैक्सी
बीते साल जून में प्रमुख जापानी दवा कंपनी दायची सांक्यो ने भारत की सबसे बड़ी फार्मा कंपनी रैनबैक्सी लेबोरेटरीज का अधिग्रहण कर लिया। समझौते के तहत रैनबैक्सी के 34.82 प्रतिशत शेयर दायची को अधिग्रहीत किया गया। शेष शेयरों के लिए 737 रुपए प्रति शेयर मूल्य पर ओपेन ऑफर लाया गया। इसके लिए रैनबैक्सी को 22,000 करोड़ रुपए से अधिक की राशि दी गई।
उद्योग जगत में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। आम भारतीय भी इस समझौते से आहत हुए। इसी बीच दायची सांक्यो के सह अध्यक्ष और सीईओ तकाशी शोडा ने एक बयान में कहा कि दोनों कंपनियां मिलकर काम करेंगी और रैनबैक्सी की स्वायत्ता पर किसी तरह की आंच नहीं आएगी। मलविंदर मोहन सिंह सीईओ के रूप में रैनबैक्सी का नेतृत्व करते रहेंगे। उधर, मलविंदर सिंह ने इस समझौते को एक ऐसा ‘पाथ ब्रेकिंग डीलज् कहा जो भारतीय दवा उद्योग में मील का पत्थर साबित होगा।

सिंगूर का सींग ‘नैनोज् में चुभा
जनवरी 2008 में ही टाटा ने लखटकिया कार नैनो को बाजार में उतारने की घोषणा की। कंपनी का दावा है कि एक लाख रुपए कीमत वाली नैनो दुनिया की सबसे सस्ती कार होगी। इसके उत्पादन के लिए पश्चिम बंगाल के सिंगूर में 1,500 करोड़ रुपए के निवेश से संयंत्र लगाया गया। लेकिन इस परियोजना के लिए किसानों से अधिग्रहीत भूमि को लेकर राज्य सरकार और विपक्ष में राजनीतिक खींचातानी तेज होने लगी। इस विवाद के कारण सिंगूर में काम रोकना पड़ा। अंतत: टटा ने ननो संयंत्र को पश्चिम बंगाल से बाहर ले जाने का फैसला किया।
टाटा के इस फैसले से राज्य सरकार ही नहीं, बल्कि सिंगूर के आम नागरिक भी आहत हुए। कई राज्यों ने टाटा के सामने अपने यहां नैनो संयंत्र लगाने की पेशकश की। आखिरकार अक्टूबर में टाटा समूह के चेयरमैन रतन टाटा ने इस परियोजना को गुजरात के सनद में स्थानांतरित करने का फैसला किया। विवादों में घिरने के कारण नैनो अपने निर्धारित समय पर बाजार में न आ सकी। अब उम्मीद की जा रही है कि नए साल में इसकी बुकिंग जल्दी ही शुरू होगी।

मुकेश बने सबसे अमीर
वैश्विक मंदी को लेकर तमाम आशंकाओं के बीच रिलायंस इंडस्ट्रीज उस समय सुर्खियों में आ गई जब फोर्ब्स ने सबसे अमीर भारतीयों की सूची जारी की। 40 अरबपति भारतीयों की इस सूची में रिलायंस इंडस्ट्रीज के मुखिया मुकेश अंबानी को लगभग 20.8 अरब डॉलर पूंजी के साथ सबसे ऊपर रखा गया। इससे पहले अप्रवासी भारतीय स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल को दुनिया में सबसे अमीर भारतीय के रूप में जाना जाता था। लेकिन उन्हें इस सूची में 20.5 अरब डॉलर की पूंजी के साथ एक पायदान नीचे यानी दूसरे स्थान पर रखा गया।
फोर्ब्स एशिया ने एक बयान में कहा कि भारतीय अरबपतियों के लिए यह विपरीत समय है क्योंकि शेयर बाजार में गिरावट और कमजोर रुपए के कारण अरबपतियों की कुल पूंजी में 60 प्रतिशत तक की गिरावट आई है। इसके बावजूद मुकेश अंबानी के लिए साल 2008 अच्छा रहा और सबसे अमीर भारतीय के रूप में वे दुनियाभर में चर्चित हुए।

सोना हुआ 14 हजारी
बीते साल सर्राफा बाजार में अच्छी बढ़ देखने को मिली। शेयर बाजार के धाराशायाी होने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वित्तीय अनिश्चितता होने के बीच निवेशकों को सर्राफा में निवेश सबसे सुरक्षित दिखा। यही कारण है कि साल के दौरान सोने-चांदी के भाव नए रिकॉर्ड बना गए। जनवरी में सोने का भाव 12,000 रुपए प्रति दस ग्राम के आसपास था। अक्टूबर आते-आते यह 14,000 रुपए प्रति दस ग्राम के रिकॉर्ड स्तर को भी छू लिया। हालांकि बाद में इसके भाव गिरे, लेकिन तेजी अब भी बरकरार है।

गायब रहे प्रॉपर्टी खरीदार
प्रॉपर्टी कारोबारियों के लिए साल 2008 अच्छा नहीं रहा। पिछले कुछ वर्षो से लगातार तेज रफ्तार में चलने वाली रियल स्टेट की गाड़ी बीते साल अचानक रुक सी गई। शेयर बाजार में गिरावट, ऊंची ब्याज दर और महंगाई के कारण प्रॉपर्टी बाजार से खरीदार गायब रहे। इससे मांग में काफी कमी आई और यह 30 प्रतिशत मात्र रह गई। मांग में कमी और महंगे होते कच्चे माल के कारण रियल्टी कंपनियों को कई बड़ी परियोजनाएं टालनी पड़ीं।
साल के अंत तक रियल एस्टेट क्षेत्र में एफडीआई आना भी लगभग बंद हो चुका था। इसी दौरान भारतीय रिजर्व बैंक ने रियल्टी सेक्टर को मंदी से उबारने के लिए ब्याज दरों में कमी की। इससे अन्य बैंकों को होम लोन आदि पर ब्याज दरें घटानी पड़ी। उधर, रियल्टी कारोबारियों ने भी अब मध्यम वर्ग को ध्यान में रखकर कम कीमतों वाले फ्लैट्स बनाने की परियोजनाएं शुरू की हैं। इसलिए नए साल में एक बार फिर प्रॉपर्टी की रौनक लौटने की उम्मीद की जा रही है।

साल 2008 की प्रमुख आर्थिक घटनाएं

10 जनवरी - नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित 9वें ऑटो एक्सपो में दुनिया की सबसे सस्ती कार लखटकिया ‘नैनो का मॉडल रतन टाटा ने पेश किया।
15 जनवरी - लगभग 12,000 करोड़ रुपए जुटाने के लिए रिलायंस पावर लिमिटेड का आईपीओ खुला। इसने बाजार से 1,45,080 करोड़ रुपए जमा कर भारत का सबसे बड़ा आईपीओ का खिताब अपने नाम कर लिया।
8 फरवरी - प्रमुख रियल एस्टेट कंपनी एमार एमजीएफ ने निवेशकों के अभाव को भांप कर अपना आईपीओ वापल लेने का फैसला किया।
26 मार्च - टाटा मोटर्स ने ब्रिटिश कंपनी फोर्ड की आलीशान कार ब्रांड जगुआर और लैंड रोवर को 2.3 अरब डॉलर में खरीद लिया।
6 मई - निजी क्षेत्र की दूरसंचार कंपनी भारती एयरटेल ने प्रमुख अफ्रीकी दूरसंचार कंपनी एमटीएन के अधिग्रहण की बात शुरू की। लेकिन 24 मई को वह समझौते से बाहर आ गई।
28 मई - अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस कम्यूनिकेशंस ने एमटीएन से बातचीत शुरू की। जुलाई आते-आते वार्ता विफल हो गई।
11 जून - जापानी दवा कंपनी दायची सांक्यो ने एक समझौते के तहत 22,000 करोड़ रुपए देकर रैनबैक्सी पर नियंत्रण हासिल किया।
18 जून - होंडा सिएल ने भारत में पहला हाब्रिड कार ‘सिविकज् को बाजार में उतारा। इसकी कमीत 21.5 लाख रुपए रखी गई।
8 अगस्त - दक्षिण कोरिया की कंपनी पॉस्को को उड़ीसा में 51,000 करोड़ रुपए के निवेश से स्टील संयंत्र लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से अनुमति मिली। कंपनी को पर्यावरण सुरक्षा के मानकों से संबंधित दस्तावेज न्यायालय में पेश करने पड़े।
21 अगस्त - एप्पल ने ‘आईफोनज् को भारतीय बाजार में उतारा।
7 अक्टूबर - टाटा मोटर ने नैनो संयंत्र को पश्चिम बंगाल के सिंगूर से स्थानांतरित कर गुजरात के सनद में स्थापित करने की घोषणा की।
8 अक्टूबर - टीसीएस ने 50.5 करोड़ डॉलर की राशि दे कर अमेरिकी बैंक सिटी ग्रुप ग्लोबल सर्विस लि. का अधिग्रहण किया।
13 अक्टूबर - जेट एयरवेज और किंगफिशर एयरलाइंस ने लागत में कटौती करने के लिए परिचालन गठजोर समझौता किया।
15 अक्टूबर - जेट एयरवेज ने 1,900 कर्मचारियों को निकाल दिया। तीव्र विरोध और राजनीतिक दबाव के कारण दो दिन बाद उन्हें वापस ले लिया गया।
4 नवंबर - कोलकाता स्थित एफएमसीजी फर्म इमामी ने झंडु फार्मास्युटिक्ल्स के अधिग्रहण को पूरा किया।
12 नवंबर - जापान की सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी एनटीटी डोकोमो ने 2.7 अरब डॉलर देकर टाटा टेलीसर्विसेज में 26 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदी।
11 दिसंबर - एमटीएनएल ने तीसरी पढ़ी की (3जी) सेवाएं लॉन्च कीं।
16 दिसंबर - सत्यम कम्प्यूटर ने 1.6 अरब डॉलर में मेटास प्रॉपर्टीज और मेटास इंफ्रा के अधिग्रहण की घोषणा की। लेकिन शेयरधारकों की नाराजगी के कारण अगले ही दिन सत्यम ने इस समझौते से अपना हाथ वापस खींच लिया। कंपनी के चार स्वतंत्र निदेशकों ने अपना इस्तीफा सौंपा।
23 दिसंबर - प्रमुख आईटी कंपनी विप्रो ने सिटी समूह के सिटी टेक्नोलॉजी सर्विस लि. को लगभग 12.7 करोड़ डॉलर में खरीदने की घोषणा की।
25 दिसंबर - विश्व बैंक ने सत्यम को 8 साल के लिए व्यापार करने से प्रतिबंधित किया। इसी दिन रिलायंस पेट्रोलियम ने जामनगर रिफाइनरी से प्रति दिन 5 लाख 80 हजार बैरल पेट्रोलियम का उत्पादन शुरू किया।